Saturday, 11 October 2014

ज़िन्दगी सबको एक ही बार मिलती है... सिर्फ एक बार!!!


           लोग मानते है की हॉस्टेल में वही लोग होते है जो शैतानी करते है. घर पर शैतानी करने के कारन उनको हॉस्टेल में रखा जाता है. पर शायद उनकी किस्मत में ही लिखी होती है कुछ ऐसी बाते जो शायद ही किसी के नसीब में हो. हर किसी के नसीब में नही होती हॉस्टेल लाइफ. घर से दूर, किसी अनजान जगह, किन अनजान लोगो के साथ गुजरने लगती है ज़िन्दगी. हॉस्टेल में रहने वाले हर इंसान को पेहेले दिन यही लगता है की इस अनजान जगह पर में कैसे रहे पाउँगा, कैसे झेल पाउँगा वो सब बाते जो अब तक महसूस भी नही की थी. पर धीरे-धीरे सब संभलने लगता है जब कोई अनजान इंसान हमसे गुफ्तगू होता है जिन्हे हम हमारी भाषा में "दोस्त" केहेते है. दोस्ती ही एक ऐसी बड़ी चीज़ होती है जो किसी को संभाल सकेजब इंसान अकेला होता है . हॉस्टेल में जाकर ही पता चलता है की दोस्तों की एहमियत क्या होती है. जब घर की याद अति है तब वही दोस्त हमे हँसाने पोहोच जाता है. रिश्तो की एहमियत, खुद की शख्सियत, दुसरो की तकलीफ और माँ-बाप का प्यार, इन सब बातो का मतलब सिर्फ हॉस्टेल में रहा हुआ इंसान ही अच्छे से समझ सकता है. 
              ये कहानी भी उसी वक्त की है जब में हॉस्टेल में रहा करता था. मुझे आज भी याद है मेरा पहला दिन जब में सिर्फ १४ साल का था और मेरे माँ-बाप मुझे छोड़ने आए थे. सब लोगो के आखो में आसु थे, न जाने सिर्फ में ही मुस्कुरा रहा था. मुझसे पेहेले से रहने वाले बच्चे भी लिपट कर फुट-फुट कर रो रहे थे. मेरी मुस्कराहट मेरे एहसास को बया नही कर रही थी, वह तोह मेरे माँ-बाप को होसला दे रही थी की में उन लोगो में से नही हु जो हार मान ले या ज़िन्दगी के एक मोड़ पर लड़खड़ा जाऊ. में उन लोगो में से था जिसे अब आज़ाद रहना सीखना था, अपने सपनो को बुनना था, अपना वजूद बनाना था. जाते-जाते मेरे माँ की आखो में कुछ अश्क आ ही गए थे जो कुछ देर में बाँध से छूटने वाले थे और मेरे पापा की आखे नम हो गयी थी जिन्हे में पहेली बार नम देख रहा था.